Tuesday, May 27, 2008

चार पल हैं जीवन के, फ़िर भी
सहता है दर्द इंसान पल पल क्यों?

कल शाम को ठीक था,
आज फ़िर दुखी है मन इतना क्यों?

रिश्तों का ये मायाजाल.
फस गया आखिर इतना गहरा क्यों?

आता है अकेला आदमी, जाता है अकेला,
अकेलेपन से डर गया फ़िर क्यों?

Saturday, May 24, 2008

जिस मोड़ पे आ गए हैं,
कई सुर्ख राहें नज़र आती हैं
मंजिलें दूर तलक जाती है,
और कदम थमते नज़र आते हैं

पीछे जिन राहों में जो सुकून छोड़ आये हैं,
मुड़ मुड़ कर उसे देखने रुक जाते हैं
बेमंन से कल की तरफ देखते हैं,
भारी क़दमों से फिर चल पड़ते हैं

अपनों की जो पल पल परिभाषा बदल रहे हैं,
इसी बीच कुछ अपनों को पराया कर चले जाते हैं
तड़पते हैं, छटपटाते हैं,
कुछ बंधनों को थामने के लिए,
कुछ की बलि चडाते हैं.

ना जीते हैं ना मरते हैं
दिशाहीन से किसी थोर बड़े चले जाते हैं.
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जिस मोड़ पे आ गए हैं,
कई सुर्ख राहें नज़र आती हैं.