क्यों फ़िर दिल लगाने को उकसाती हो -जैसे,
हशं क्या है, ना जानती हो.
ख्वाब देखने को इसरार करती हो कैसे,
जब शब् ओ रोज़, नींद ना आती हो.
जानता हूँ, भर जायेंगे ये ज़ख्म वक़्त में.
इल्म है, गुज़र जाएगी एक उम्र किस तरह भी,
पर बताओ ज़ख्मो भरे दिल को,
इस पल के लिए ही कैसे तुम सहलाती हो?
क्या होगा करीब कोई कल में,
क्या होगा दिल खुश उस पल में,
क्या कहती हो, ये सच होगा,
या फ़कत दिल को तुम बहलाती हो?
Monday, October 20, 2008
Tuesday, October 14, 2008
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