Monday, November 29, 2010

तू नहीं वो जो माईने हैं,
कोई नहीं तो तू सामने हैं.

तेरा अक्स तू है.
मुझे दिखते अलग आईने हैं.

नहीं तू और पास ना आ,
यूँ रोज़ ना मिल,
इस नशे से मुस्कुरा भी मत,
वो समय कुछ और था,
अब कुछ और ही ज़माने हैं.

फ़िर से वही दर्द ना हो.
फ़िर वही कशमकश  ना हो.
है रास्ते कहीं और
हाथ किसी और के 'सुफन' थामने हैं.

Wednesday, October 13, 2010

अपने ही देश को कभी अजनबी नज़रों से देखता हूँ मैं.

अच्छाइयों को तो महसूस करता ही हूँ मैं
कमियों को अक्सर सोचता हूँ मैं.

चिलचिलाती धुप में संव्लाते चेहरे देखते हूँ मैं
किसी को किसी की फ़िक्र कहाँ,
भीड़ के धक्कों में अपनेपन का ज़िक्र खोजता हूँ मैं.

ज़द्दोजाहत-ए-ज़िन्दगी में कल का अक्स है कहीं.
वाहनों की रफ़्तार से सपनो की भूमिका को मापता हूँ मैं.

कभी शर्म कभी गर्व महसूस करता हूँ मैं.
अपने देश को कभी अजनबी नज़रों से देखता हूँ मैं

Sunday, August 08, 2010

फ़िर से आज शाम कशमकश की,
तन्हा दिन रहा, शब्-ए-तन्हाई अभी बाकि.

लिख रहा था मुहब्बत का अफसाना एक और,
फ़िर कलम-ए-तदबीर की नोक चटकी.

उल्फत के मुक़र्रर थे सपने,
बेमिसाल थी बज़्म-ए-ख्याल की बारीकी.
उम्र जी लेता उस पल में मैं,
कमबख्त किस्मत की वही बदसुलूकी.

समझा, मिल गयी मुहब्बत-ए-'सुफन'.
पर फ़िर से वही मुगालते दिल-ए-बैचैन की

Sunday, August 01, 2010

भावनाएं जोड़ एहसास उभर आया है, और
एहसासों ने तराशा है तेरा तसव्वुर  रूबरू .
अब के कशमकश- ए- 'सुफन' ये है के
तलब-- आशिकी तू है या तेरे तसव्वुर की मुझे आरज़ू.

Wednesday, June 23, 2010

नहीं, तड़पता नहीं उस तरह से अब,
बिखरता नहीं हर याद पे बेबस.
हो गए थे फ़ना अब तलक, शुक्र है
लड़ता नहीं वक़्त से दर्द देर तक.

Monday, April 05, 2010

खुद-फरोशी

ना दिल रहा, ना दोस्ती रही
ना घर  ना वह बस्ती रही.
ख़ाक तो हो ही गया था जो भी
कुछ ना रहा, खुद-फरोशी रही

एक बात थी, अब याद नहीं
तू था, में था और ख़ामोशी कहीं.
एक दिन रही, और रहती रही.
फ़िर कुछ ना रहा बा-खुद-फरोशी रही

क्यों ना रहे अलहिदा ही सही,
जियें क्यों ना ऐसे खफा ही सही,
रहते रहे और क्यों ना रहे
कुछ और ना सही खुद-फरोशी सही

Thursday, March 25, 2010

ना करे कोई क़द्र, तो क्या है,
न मिले हमज़बाँ कोई, तो क्या है.

ना हो कोई सुकून-ए-बज़्म तो क्या है,
ना बने फिर दास्तान कोई तो क्या है.

माना ना खुशफहम हूँ मैं,
ना शान-ए-महफ़िल भी कोई,
ता-उम्र यूँ भी जाये तो क्या है.

हैं कमियाँ मुझमें बेपनाह बेशक,
मैं मैं ही हूँ - और क्या है.

Monday, February 08, 2010

 जब चाहते हैं दोनों मेरा भला ही तो
दिल और दिमाग मैं यह अनबन क्यों?

जब हो ही गया है निश्चय तो
बार बार यह संशय क्यों?

हर राह में हैं, फूल और कांटें भी

जब चल ही पड़े हैं एक थोर तो
हर मोड़ पे वही मंथन क्यों?

जो भी होता है अच्छे के लिए ही होता है ना?
बेबात दिल की तेज़ है फिर धड़कन क्यों?

Tuesday, February 02, 2010

यह पल

जी का जंजाल है यह पल.

अभी अभी तो बिताया था,
देखो फिर आ गया यह पल.

रात को देर तलक बैठा था,
सुबह पहले पहर चला आया यह पल.

क्यों है तू? क्या है तू?
बेमतलब के इन सवालों का वकील है यह पल.

जी लेता इसको, क्या फरक पड़ता है,
था या नहीं था यह पल.

मगर कुछ और नहीं,
किसी के ना होने का एहसास है यह पल.

मेरी तन्हाई का खुलासा है यह पल,

जी का जंजाल है यह पल.

Monday, January 25, 2010

कभी सपना था वो हकीकत बन रहा है,
बे-सब्र बहती धारों से साहिल बन रहा है |

किसी का ना होना अब आरज़ू बन रहा है,
सुबह से शाम भर जीना, रोज़ाना बन रहा है|

माना की अभी मंज़िल नहीं मिली, कोई गुलशन नहीं बना,
कम से कम इस बार वीराने में सऱाब तो बन रहा है|