Monday, October 20, 2008

क्यों फ़िर दिल लगाने को उकसाती हो -जैसे,
हशं क्या है, ना जानती हो.

ख्वाब देखने को इसरार करती हो कैसे,
जब शब् ओ रोज़, नींद ना आती हो.

जानता हूँ, भर जायेंगे ये  ज़ख्म वक़्त में.
इल्म है, गुज़र जाएगी एक उम्र किस तरह भी,
पर बताओ ज़ख्मो भरे दिल को,
इस पल के लिए ही कैसे तुम सहलाती हो?

क्या होगा करीब कोई कल में,
क्या होगा दिल खुश उस पल में,
क्या कहती हो, ये सच होगा,
या फ़कत दिल को तुम बहलाती हो?

Tuesday, October 14, 2008

इस दर्द की कोई दवा नहीं,
गमजदा हूँ और कोई दुआ नहीं.

जम गया है बर्फ की तरह,
ख़याल तेरा जिगर के  इर्दगिर्द.
सुन्न सा है दिल,
मुहब्बत की कोई आरजू नहीं.

अब खुद से ही हूँ, अतराफ कोई नहीं,
जी रहा हूँ, शामिल कोई और वजह नहीं.

Wednesday, October 08, 2008

दर्द इतना बढ़ गया की,
शायरी अब लिखी नहीं जाती 
अंगारे अभी गरम हैं और 
भावनाओं को आंधी दी नहीं जाती.

डरते हैं, लिखे क्या,
की कब्रें ऐसे ही कुरेदी नहीं जाती 
दफ़्न हैं कई गम ऐसे और
कई आरजुएं बेज़ार
जिनकी सांसें अब तलक नहीं जाती.

Monday, June 23, 2008

भावनाओं में इतना कस गया,
की दम ही घुटने लगा.

मन  के तालाब में ऐसा भंवर चला,
इकलौता बाँध भी टूटता रहा.

इछाओं का बोझ बढता ही गया,
सपनो का महल वहीँ ढहने लगा.

रिश्ते का धागा इस तरह खींचता गया.
एक वार में ही वह चटक गया.

और किसी कमजोरी की गुंजाईश ना रही,
जो रब्त-ओ- बुत- ए-पाक ही बहक गया.

Tuesday, May 27, 2008

चार पल हैं जीवन के, फ़िर भी
सहता है दर्द इंसान पल पल क्यों?

कल शाम को ठीक था,
आज फ़िर दुखी है मन इतना क्यों?

रिश्तों का ये मायाजाल.
फस गया आखिर इतना गहरा क्यों?

आता है अकेला आदमी, जाता है अकेला,
अकेलेपन से डर गया फ़िर क्यों?

Saturday, May 24, 2008

जिस मोड़ पे आ गए हैं,
कई सुर्ख राहें नज़र आती हैं
मंजिलें दूर तलक जाती है,
और कदम थमते नज़र आते हैं

पीछे जिन राहों में जो सुकून छोड़ आये हैं,
मुड़ मुड़ कर उसे देखने रुक जाते हैं
बेमंन से कल की तरफ देखते हैं,
भारी क़दमों से फिर चल पड़ते हैं

अपनों की जो पल पल परिभाषा बदल रहे हैं,
इसी बीच कुछ अपनों को पराया कर चले जाते हैं
तड़पते हैं, छटपटाते हैं,
कुछ बंधनों को थामने के लिए,
कुछ की बलि चडाते हैं.

ना जीते हैं ना मरते हैं
दिशाहीन से किसी थोर बड़े चले जाते हैं.
-
जिस मोड़ पे आ गए हैं,
कई सुर्ख राहें नज़र आती हैं.