Sunday, August 08, 2010

फ़िर से आज शाम कशमकश की,
तन्हा दिन रहा, शब्-ए-तन्हाई अभी बाकि.

लिख रहा था मुहब्बत का अफसाना एक और,
फ़िर कलम-ए-तदबीर की नोक चटकी.

उल्फत के मुक़र्रर थे सपने,
बेमिसाल थी बज़्म-ए-ख्याल की बारीकी.
उम्र जी लेता उस पल में मैं,
कमबख्त किस्मत की वही बदसुलूकी.

समझा, मिल गयी मुहब्बत-ए-'सुफन'.
पर फ़िर से वही मुगालते दिल-ए-बैचैन की

Sunday, August 01, 2010

भावनाएं जोड़ एहसास उभर आया है, और
एहसासों ने तराशा है तेरा तसव्वुर  रूबरू .
अब के कशमकश- ए- 'सुफन' ये है के
तलब-- आशिकी तू है या तेरे तसव्वुर की मुझे आरज़ू.