Monday, April 05, 2010

खुद-फरोशी

ना दिल रहा, ना दोस्ती रही
ना घर  ना वह बस्ती रही.
ख़ाक तो हो ही गया था जो भी
कुछ ना रहा, खुद-फरोशी रही

एक बात थी, अब याद नहीं
तू था, में था और ख़ामोशी कहीं.
एक दिन रही, और रहती रही.
फ़िर कुछ ना रहा बा-खुद-फरोशी रही

क्यों ना रहे अलहिदा ही सही,
जियें क्यों ना ऐसे खफा ही सही,
रहते रहे और क्यों ना रहे
कुछ और ना सही खुद-फरोशी सही

4 comments:

स्वप्न मञ्जूषा said...

जब आप २००५ से लिख रहे हैं तो फिर आप नए चिट्ठों की लिस्ट से कैसे आ रहे हैं ..ये हम नहीं समझे बाबा...
फिर भी सौ बात की एक बात...ग़लती से ही सही यहाँ आना सुखद रहा ..
बहुत अच्छा लिखते हैं आप..
निसंदेह बधाई के पात्र हैं आप..
बधाई..!!

kshama said...

क्यों ना रहे अलहिदा ही सही,
जियें क्यों ना ऐसे खफा ही सही,
रहते रहे और क्यों ना रहे
कुछ और ना सही खुद-फरोशी सही
Bahut khoob...behad chuninda alfazon me saji panktiyan!

harshit said...

आप लोगों का शुक्रिया मेरी रचना को सराहने के लिए.
@ 'अदा' - समझ में नहीं आया किन चिट्ठों की बात कर रही थी आप.
शायद मैंने ही किसी setting को कहीं छेड़ा, पर इस बहाने आप तक 'मेरे शब्द' पहुंचे.

संगीता पुरी said...

इस नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!