फ़िर से आज शाम कशमकश की,
तन्हा दिन रहा, शब्-ए-तन्हाई अभी बाकि.
लिख रहा था मुहब्बत का अफसाना एक और,
फ़िर कलम-ए-तदबीर की नोक चटकी.
उल्फत के मुक़र्रर थे सपने,
बेमिसाल थी बज़्म-ए-ख्याल की बारीकी.
उम्र जी लेता उस पल में मैं,
कमबख्त किस्मत की वही बदसुलूकी.
समझा, मिल गयी मुहब्बत-ए-'सुफन'.
पर फ़िर से वही मुगालते दिल-ए-बैचैन की
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1 comment:
Bhai kab mohbaat ke umar nikal chuki hai.. Shaadi kar lo ab [;)]..
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